Tuesday, May 18, 2010

Fatwa क्या होता है फ़तवा, पहले यह जानो तो........


जावेद अख़्तर साहब एक प्रगतिशील शायर हैं और अब तो संसद सदस्य भी हैं। इसलिए वह किसी भी प्रश्न के जवाब में कुछ भी कह सकते हैं। पिछले दिनों जब वंदे मातृम पर बहस चल रही थी तो आपने फरमाया था कि मैं ही क्या मेरा पूरा परिवार वंदे मातृम गाता है, और अब उन्होंने दारुलउलूम देवबंद के मुफ़्ती साहेबान जनाब मुफ़्ती हबीबुर्रेहमान साहब, जनाब मुफ़्ती फ़ख़रुल इस्लाम साहब, जनाब मुफ़्ती वक़ार अली साहब और जनाब मुफ़्ती मेहमूद हसन बुलंद शहरी साहब द्वारा दिए गए फ़तवे पर अपनी टिप्पणी कर दी, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं। अब ज़ाहिर है कि जावेद अख़्तर जैसे बड़े आदमी को जान से मारने की धमियां मिलें और उन पर ध्यान न दिया जाए, उनकी सुरक्षा की उचित व्यवस्था न की जाए, यह तो संभव ही नहीं है। अब इस पर आप विचार विमर्श करते रहिए कि जावेद अख़्तर साहब की इस टिप्पणी का भारतीय समाज विशेष कर मुसलमानों पर क्या प्रभाव होगा, या उनको जान से मारने की धमकियों को किस रूप में लिया जाएगा?



लेकिन यह उनकी समस्या नहीं है, जिनकी समस्या है वह इस पर विचार करें। बहरहाल इस विषय पर उठे विवाद के कारण हम चाहते हुए भी इसकी अनदेखी नहीं कर सके। हालांकि आज जब देवबंद के आलिमे दीन मोहतरम नूरुलहुदा साहब ने फोन पर अपनी विपदा सुनाई तो मन में यही था कि आज का लेख इसी विषय पर होगा कि क्यों दिल्ली से लंदन के लिए अमारात एयरलाइंस की फ़्लाइट के उड़ान भरने से पूर्व केवल एक ज़रासी बात पर न केवल उन्हें जहाज़ से उतार दिया गया बल्कि उनके मान सम्मान का ध्यान रखे बिना उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया। उनका दोष केवल इतना सा था कि उन्होंने अपने बेटे से फोन पर कहा था कि 15-20 मिनट में जहाज़ उड़ जाएगा। बेचारे मौलाना अगर अंग्रेज़ी में यह कह देते कि 15-20 मिनट में प्लेन टेकऑफ करेगा तो उन्हें इतनी पीड़ा और बदनामी का सामना न करना पड़ता। बहरहाल इस विषय पर बातचीत कल होगी। आज मैं केवल कुछ वाक्य दारुलउलूम देवबंद के मुफ़्ती मोहतरम मुफ़्ती साहेबान जनाब मुफ़्ती हबीबुर्रेहमान साहब, जनाब मुफ़्ती फ़ख़रुल इस्लाम साहब, जनाब मुफ़्ती वक़ार अली साहब और जनाब मुफ़्ती मेहमूद हसन बुलंद शहरी साहब द्वारा दिए गए फ़तवे पर लिखना चाहता हूं। सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि फ़तवा क्या होता है और किन परिस्थितियों में दिया जाता है। फ़तवा उस धार्मिक मार्गदर्शन का नाम है, जो किसी भी प्रश्न करने वाले के जवाब में मुफ़्ती हज़रात क़ुरआन और हदीस की रोशनी में देते हैं। इसमें किसी के स्वार्थ तथा इच्छा का दख़ल बिल्कुल नहीं होता। फ़तवा देने वाले मुफ़्ती की स्थिति वही होता है जो आम अदालतों में एक वकील की होती है जो केवल क़ानून की रोशनी में बातचीत करते हैं उसमें संशोधन करने का उन्हें कोई अधिकारनहीं होता और उसके लिए उन्हें भारत सरकार के स्वीकृत संस्थानों से बाक़ाएदा डिग्री लेनी होती है। फ़तवा देने का अधिकार भी उन्हीं आलिमों को होता है, जो बाजाब्ता इसका कोर्स करते हैं और फिर दारुलइफ़ता में मौजूद बड़े उलमा-ए-दीन और मुफ़्ती साहेबान से प्रशिक्षण प्राप्त करके धार्मिक मसले बताते हैं। स्पष्ट हो कि कोई भी आलिमे दीन केवल मसअला बता सकता है, वह फ़तवा देने का अधिकृत नहीं है। फतवा केवली मुफ़्ती ही दे सकते हैं जिन्होंने बाक़ाएदा डिग्री प्राप्त की है, अब हम अगर भारत के परिपेक्ष में बात करें तो किसी भी मुफ़्ती द्वारा दिए गए फ़तवे को लागू कराने की अदालतें या सरकार पाबंद नहीं है और यह फैसला भी सवाल पूछने वाले के विवेक पर है कि उसके सवाल के जवाब में मुफ़्ती द्वारा दिए गए फ़तवे पर वह किस हद तक अमल करता है, लेकिन यदि सवाल करने वाला एक आम मुसलमान या हमारा समाज यह आशा करे कि सवाल के जवाब में जारी किया गया फ़तवा सबको स्वीकारीय हो, सबकी पसंद के पैमाने पर पूरा उतरता हो तो यह संभव नहीं है। हमें यह भी समझना चाहिए कि किसी भी सवाल के जवाब में एक योग्य मुफ़्ती का जारी किया गया फ़तवा इस सवाल के जवाब में एक आइडियल स्थिति को स्पष्ट करता है। इसे हम यूं समझें कि कुरआन-ए-करीम एक संविधान है, जीवन व्यवस्था को समझने और सीरत-ए-रसूल सल्ल॰ (रसूल का क़ौल और अमल) इस आसमानी किताब की रोशन में उसका व्यवहारिक नमूना पेश करती है। अब चूंकि किसी भी मुफ़्ती की ओर से जारी किया गया फ़तवा क़ुरआन और हदीस की रोशनी में होता है, इसलिए वह इस्लाम पर अमल करने की एक ऐसी उच्च स्थिति होती है, जो इस्लाम के पैग़म्बरों द्वारा बताई गई और उनके अमल की रोशनी में सारी दुनिया तक पहुंचाई गई है। ज़ाहिर है कि किसी भी आम मुसलमान के लिए यह संभव नहीं है कि जीवन के हर मामले में ठीक कुरआन और हदीस की रोशनी में पूर्णतः अमल करे, लेकिन जिस हद तक भी वह इस पर अमल कर सके वही बेहतर से बेहतर सूरतेहाल हो सकती है। लेकिन अगर मुफ़्तियाने किराम से यह उम्मीद करें कि वह आइडियल पोज़ीशन से हट कर कोई आसान सी सूरत हमारे सामने रख दें तो उनसे यह अपेक्षा करना ग़लत होगा। अब अगर बात करें, इस समय उठाए गए उन प्रश्नों पर जो अपने वर्तमान फ़तवे में देवबंद के मुफ़्ती साहेबान द्वारा सामने रखे गए हैं तो समाज को यह अधिकार है कि वह इस फ़तवा को जिस तरह चाहे देखें, परन्तु टिप्पणी करने से पहले उस पर विचार अवश्य करें कि यह किस हद तक आलोचना के योग्य है। जहां तक महिलाओं का पुरुषों के साथ काम करने का संबंध है तो पूर्व इसके कि मैं इस पर वर्तमान फ़तवे की रोशनी में बातचीत करूं, एक शोध पेपर के मुख्य अंश पाठकों की सेवा में पेश करना चाहता हूं। हमारे प्रगतिशील और विद्वान मित्रगण निम्नलिखित लिंक http:/www.patrika.com/news.aspx?id=250618पर जाकर अपनी जानकारियों में वृद्धि कर सकते हैं रिसर्च पेपर का विवरण कुछ इस प्रकार है: देश के राष्ट्रपति तथा लोकसभा स्पीकर जैसे बड़े पद भले ही महिलाओं के पास हों लेकिन एक ताज़ा रिसर्च के परिणामों पर भरोसा करें तो आज भी समाज में मर्दों की वर्चस्व वाली मानसिकता देखने को मिलती है। इस रिसर्च में पाया गया है कि आज़ादी के 62 वर्ष बाद तक शिक्षित वर्ग भी महिलाओं को यह एहसास दिलाने से नहीं चूकता कि वह एक महिला है। यही कारण है कि सरकारी तथा निजी नौकरियों में उच्च पदों पर नौकरी प्राप्त कर लेने के बावजूद महिलाओं के लिए उनकी नौकरी किसी युद्ध के मोर्चे पर नियुक्त होने से कम नहीं है। एक ऐसा युद्ध जहां परेशानियां कार्यालय से लेकर घर तक उनका पीछा नहीं छोड़तीं और वह मानसिकरूप से इस हद तक परेशानियों का शिकार हो जाती है कि आप उन्हें मानसिक रोगी समझ सकते हैं।यह रिसर्च गुजरात यूनिवर्सिटी के ह्यूमन साइकॉलॉजी डिपार्टमेंट के एम॰ए॰ साइकॉलॉजी के छात्र के एक वर्ष के अध्ययन के बीच सामने आए परिणामों पर आधारित है। इस बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हुए डा॰ जॉन सारी ने बताया कि रिसर्च के दौरान बैंक में काम करने वाली महिलाएं, टीचर, नर्स और विभिन्न सरकारी विभागों में टाइपिस्ट के रूप में काम करने वाली 21 से 56 वर्ष तक की महिलाओं के अनुभवों को सामने रखा गया है। 306 नौकरी पेशा महिलाओं से लिखित रूप में उनकी राय मांगी गई। उनमें से 215 विवाहित थीं और 81 अविवाहित। इनमें वह भी थीं जिनकी शिक्षा मात्र दसवीं कक्षा पास तक थी और उनमें वह भी शामिल थीं जिन्होंने एम॰फिल (M.Phil) या पीएचडी (PHD) तक शिक्षा प्रापत की थी। फिर महिलाओं को आयु के हिसाब से दो श्रेणियों में रखा गया, जिनमेंसे एक में 21 से 30 वर्ष आयु की महिलाएं और दूसरी में 31 से 56 वर्ष तक की महिलाओं को शामिल किया गया। व्यवसाय से जुड़ी महिलाओं की कठिनाइयां और उनके समाधान जैसे विषय पर मांगे गए लिखित विचारों की रोशनी में इस रिसर्च के परिणाम से मालूम होता है कि 66 प्रतिशत महिलाएं अपने वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा शोषण का शिकार होती हैं, जिसमें से 21 से 30 वर्ष आयु श्रेणी की 188 महिलाओं में से 80 प्रतिशत ने कहा कि उनके अधिकारी उनके महिला होने का लाभ उठाते हैं और उन्हें परेशान करते हैं।31 से 34 वर्ष आयु के बीच की महिलाओं में से 45 प्रतिशत का कहना है कि उन्हें शारीरिक शोषण तथा छेड़छाड़ का सामना करना पड़ता है। 39 प्रतिशत महिलाओं का कहना था कि नौकरी लगने के बाद भी वह चाहते हुए भी आगे नहीं पढ़ पातीं। उनकी शिकायतों पर उचित कार्यवाही न होने के चलते उन्हें लगातार शोषण सहन करना पड़ता है।निजी कम्पनियों में कार्यरत 21 से 30 वर्ष आयु की 43 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि वह महिला हैं इसलिए उन्हें अपेक्षाकृत कम वेतन मिलता है, जबकि उनका पद और कार्य सहकर्मी मर्दों के बराबर होता है। 31 से 56 वर्ष आयु की 27 प्रतिशत महिलाओं ने भी यही शिकायत दोहराई। 21 से 30 वर्ष तक की 48 प्रतिशत महिलाओं का कहना था कि उन्हें समय पर तरक्की तथा प्रोत्साहन नहीं मिलता। सबसे चिंता की बात यह है कि 51 प्रतिशत नौकरी पेशा महिलाएं मानसिक रोगों का शिकार पाई गईं। घर तथा कार्यालय में उचित सहयोग न मिलने के चलते नौकरी करने वाली 51 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी मानसिक रोग का शिकार पाई गईं। अगर इसकी और समीक्षा करें तो 21 से 30 वर्ष आयु तक की नौकरी पेशा महिलाओं में 63 प्रतिशत मानसिक रोगी थीं। जबकि 31 से 56 वर्ष आयु तक की महिलाओं में 40 प्रतिशत मानसिक रोगी पाई गईं। 33 प्रतिशत नौकरी पेशा महिलाओं का कहना था कि अगर उन्हें भी अपने साथ काम करने वालों से उचित सहयोग मिलें तो वह बढ़िया काम कर सकती हैं। शारीरिक शोषण और छेड़छाड़ के मामले में 40 प्रतिशत महलओं का कहना था कि उन्हें स्वयं ही आरम्भिक दिनों में ही इसका सख़्त विरोध करना चाहिए। शोषण करने वालों को क़ानून तथा पुलिस कार्यवाही का भय दिखाना चाहिए। उपरोक्त रिसर्च न तो लेखक द्वारा किया गया न कराया गया और न महिलाओं को नौकरियों से दूर रहने का फ़तवा जारी करने वाले मुफ़्ती साहेबान के द्वारा। अब यह फैसला समाज विशेष रूप से महिलाओं को करना है कि अगर इस स्थिति की समीक्षा की जाए तो देवबंद का फ़तवा किस हद तक निंदनीय है। हम महिलाओं के नौकरी करने पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। उनके हालात क्या हैं, उन्हें इसकी आवश्यकता कितनी है जहां वह काम करती हैं वहां का वातावरण कैसा है। इस सबको मन में रखते हुए यह निर्णय तो उन्हीं को करना है, लेकिन अगर इस बात का ख़याल रखा जाए कि उनके साथ कोई अशलील व्यवहार न हो, उनका शोषण न हो वह नौकरी तो करें मगर इन बातों का ध्यान रखते हुए कि न तो उनकी आबरू पर आंच और न ही वह मानसिक रोगों का शिकार हों, तो उसमें ग़लत क्या है। पर्दे का सवाल भी इस मसले से मिलता जुलता ही है। क्या हम ईसाई ननों पर, उनके वस्त्रों पर कोई टिप्पणी करते हैं, अगर हम भारतीय समाज की पुरानी परम्परा पर नज़र डालें तो क्या हमें वहां शरीर की नुमाइश मिलती है। क्या हमारे समाज की महिलाएं इस प्रकार अर्धनग्न रहती थीं, जिस तरह हम आज कम कपड़ों वाली महिलाओं को प्रगतिशील कह कर उनका प्रोत्साहन करते हैं। क्या हम वाक़ई अपनी बहन, बेटियों और बहुओं को कम से कम वस्त्रों में देख कर बहुत प्रसन्न होते हैं और उनके इस व्यवहार पर गर्वान्वित होते हैं। अगर ऐसा है तो वास्तव में उन्हें ऐसे फ़तवों पर भरपूर टिप्पणी करनी चाहिए और तूफ़ान भी खड़ा करना चाहिए और अगर उन्हें ज़रा भी ऐसा लगता है कि एक दायरे में रह कर अपनी आबरू का ध्यानरखते काम करने का सुझाव एक उचित सुझाव है तो इससे अलग हट कर कि यह एक मुफ़्ती का फ़तवा है या किसी धर्म का क़ानून उस पर आंख बंद करके टिप्पणी की बजाए उस पर विचार करने की आवश्यकता है।....................................

1 comment:

  1. अच्छी जानकारी ! बिजया दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं !

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